सिक्कों का शोर
सिक्कों का शोर
ये सिक्कों के खनकने की आवाज़ है
या कोई भ्रम है इन कानों का
जो इस तिलिस्म सी आवाज़ की ओर
सब ऐसे बढ़ते चलें जाते हैं
जैसे बस यही एक सच हो।
जैसे बस ये आवाज़ ही ज़िन्दगी हो
और पीछे छूटते जाते हैं
घर, परिवार, साथ
और कोई फ़िक्र नहीं दिखती
न ही कोई परवाह किसी के जाने की
किसी के छूटने की
मानो इस खनखनाहट के सिवा सब भ्रम है
तिलिस्म है।
सब बस ढूँढ़ते दिखाई देतें है
बेपरवाह होकर
बेख़ौफ़ होकर
इस आवाज़ को
जिसकी न शुरुआत की खबर हैं
न ख़त्म होने के चर्चे।