किसान : अन्नदाता की व्यथा
किसान : अन्नदाता की व्यथा
माटी का सपूत वो,
जगत का अन्नदाता है।
उदर 'जहान' का भरने को वो,
अपना लहू बहाता है।
वो 'किसान' है जो खुद भूखे रह कर,
जग की भूख मिटाता है।
माटी का सपूत वो जगत का अन्नदाता है।
भोर से पहले उठता, हाथ कुदाल,
हल कांधे पर रखकर,
अपने खेत को जाता है।
दो बैलों संग मेहनत करके
इस धरा को लहलहाता है,
कड़ी धूप में माटी संग सनकर भी,
हर पल मुस्काता है।
माटी का सपूत वो,
जगत का अन्नदाता है।
सबको अन्न देने वाला,
आज इतना लाचार क्यों है ?
इतने निर्मल मन के अंदर,
आत्महत्या का विचार क्यों है ?
पर सोचे क्यों न ?
सालों से उसके श्रम पर,
कोई और ही मुनाफा कूट रहा।
ब्राण्ड का नाम चिपका कर,
उसके हक़ को लूट रहा।
बाज़ारों में दाम देख कर,
मन ही मन पछताता है।
कर्ज की किश्त,खाद का दाम,
फिर मेहनत का हिसाब लगाता है।
निर्धारित समर्थन मूल्य से तुलना कर,
ठगा सा खुद को पाता है।
हिसाब किताब में घाटा पा कर,
मुंह में बुदबुदाता है।
कैसे पालूं परिवार को अपने,
ये सोचकर उसका सिर चकराता हैं।
रह रह कर वो पल पल, अपने अश्क बहाता है।
लाचार हो कर वो अन्नदाता, फांसी गले लगाता है।
ये व्यथा आज के किसान की है।
उसके बुझते अरमान की है।
हे सरकार ! तुम सुध लो उसकी,
न उसका अपमान करो।
उसके श्रम का उचित फल दे कर,
उसका तुम सम्मान करो।
अभी वक्त है, जाग जाओ, वरना सब पछताओगे।
गर किसानी छोड़ गया वो,अन्न कहाँ से लाओगे ?
कौन भरेगा पेट जहां का, ये सोच के मन घबराता है।
माटी का सपूत वो, इस जगत का अन्नदाता है।
माटी का सपूत वो, इस जगत का अन्नदाता है।