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ख़्वाब

ख़्वाब

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फकत कुछ ख्वाब थे,

हमने कभी पलकों पे पाले थे,

गई मुद्दत कि याद आए हैं,

कितने भोले-भाले थे।


कि जैसे बारिशों में,

बुलबुलों-सी नाव चलती है,

ज़रा से एक खिलौने के लिए,

ख्वाहिश मचलती है।


कि जैसे रंग खिलते हैं,

किसी तितली के पंखों पर,

ज़रा से पैर ज्यों उचके हैं,

बस अपने अंगूठे पर।


कि जैसे वक्त सुनता हो,

किसी की गोद में लोरी,

किसी मसरूफ़ दुनिया से,

करे कोई फुर्सतें चोरी।


कि जैसे चांद और सूरज,

फ़लक पर साथ दिख जाएँ,

कि बस दिल से निकलते ही,

दुआएँ रंग ले आएँ।


कि कंचे हों चटकते,

ज्यों किसी नन्हीं हथेली में

कोई बचपन कहीं उलझा हो,

सुलझी एक पहेली में।


कहानी ऊँघती हो हाथ के,

तकिए तले कोई

कि देकर थपकियाँ आँखों में,

गहरी नींद हो बोई।


उन्हीं नींदों से निकले थे,

उन्हीं किस्सों ने ढाले थे

फकत कुछ ख्वाब थे,

हमने कभी पलकों पे पाले थे।


गई मुद्दत कि याद आए हैं,

कितने भोले-भाले थे।


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