ख़ुदा फ़लक से
ख़ुदा फ़लक से
फ़लक से जब ख़ुदा भी देखता है ज़िंदगी,
कहीं ख़ुशनुमा लगे कहीं ख़फ़ा है ज़िंदगी।
सोचता है मैंनें सबको बराबर दिया मगर,
ज़रा सी कहीं कम कहीं ज़्यादा है ज़िंदगी।
मेरे पास ख़ुद को ढूंढने आते हैं सारे लोग,
पर उनके ही बशर में गुमशुदा है ज़िंदगी।
हर इंसान से सौदे में यही सीखा है मैंनें,
कहीं नुक़सान तो कहीं फ़ायदा है ज़िंदगी।
मैंनें कहाँ बनाये ये मज़हब या जात-पात,
नफ़रत की सरहदों से अलहदा है ज़िंदगी।
फ़लक से बादलों ने तो बरसाया था पानी,
मगर झील है कहीं, कहीं सहरा है ज़िंदगी।
ना चाँद, ना सूरज ने तरफ़दारी की मगर,
कहीं बर्फ सी ठंडी, कहीं शोला है ज़िंदगी।
मैंनें तो ख़ाली हाथ ही भेजा था सभी को,
सब पाने की ज़हद में खो रहा है ज़िंदगी।
जो अपने लिए जिये थे वो ज़िंदगी ना थी,
औरों के लिए जी ले तो सजदा है ज़िंदगी।
मैं मौजूद हर जगह हूँ लेकिन कहीं नहीं मैं,
जो मुझसे मिल गया वोही ख़ुदा है ज़िंदगी।
