कागज के फूल
कागज के फूल
क्यों समझते हो बेटियों को, कागज के फूल
पैरों की जूती और, मिट्टी की धूल
आपकी बेटी भी है, बहू किसी की
क्यों कीमत लगाते हो, बेबसी की
आपके भरोसे छोड़ आती है, बाबुल के आंगन को
आप सौंप देते हो उसको, आंसुओं के सावन को
दिन-रात अश्कों से, भीगता है दामन
लालची दहेज के चक्र में, उसका होता है जानम
आखिर कब तक जलेगी बेटी, दहेज की आग में
कब तक रहेगा पतझड़, इन फूलों के बाग में
पत्थर पर गिरने से अक्षर, टूट जाते हैं खिलौने
पल भर में बिखर जाते हैं, बेटियों के सपने सलोने
आखिर कब उतर पाएगा लोगों से, ये दहेज का बुखार
मासूम चेहरों से खुशी का, उड़ जाता है निखार
ये पाप हर दिन होता, जा रहा है खूंखार
सज गया हर तरफ, इन सिलसिलों का बाजार
कहीं दहेज कहीं भ्रूण हत्या, बन गया है तमाशा
हजारों बेटियों के चेहरे पे, नजर आती है निराशा
दे देते हैं जालिम, इनको झूठा दिलाशा
चकना चूर हो जाती है, अपनी बहनों की आशा
कब समझ में आएगी, इस दुनियां हमारी को
बेमतलब सताते हैं, कुछ लोग नारी को
दुखों को सहकर भी इनके, अच्छे रहते हैं विचार
फिर भी करते हैं लोग, बेटियों पे अत्याचार
जितने भी बेटियों के, गिरेंगे आंसू
पाप उतना ही सहना पड़ेगा, पति ससुर हो या सासू
पाप के ही पौधे, पैदा होते हैं आंगन में
लक्ष्मी का रूप, होता है सुहागन में।
