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Birendar Singh

Abstract

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Birendar Singh

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धर्म के वो कातिल थे

धर्म के वो कातिल थे

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आए थे जो दुश्मन अपने वतन में, धर्म के वो कातिल थे।

लहर गुलामी की थी चारों तरफ, नहीं साहिल थे।

शहीद होकर आजादी को वो, कर गए हासिल थे।

हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई, हर मजहब के शामिल थे।


फूट को डाला राज किया,आपस में हम लड़ गए।

मैं हिन्दू मैं मुस्लिम हूं,जिद पे सब यूं अड़ गए।

जिन वीरों ने दी है कुर्बानी,अपने ही वो खातिर थी।

हिन्दू-मुस्लिम को भिड़ाना,गोरों की वो शातिर थी।


हरा नहीं कोई हमको सकता,गोली और तलवार से।

हार जाएंगे हम तो यारो,मजहब की तकरार से।

कदम कभी न रुके हमारे,दुश्मन की ललकार से।

बिखर जाएगा वतन हमारा,धर्म और जाति के हथियार से।


महक रहा है वतन ये अपना, आजादी के भवरों से।

कोई फूल कभी मुर्झा न पाए, दुश्मन की बुरी नज़रों से।

इस गुलशन में उन वीरों ने, वीरता का रंग लगाया है।

हर कली को सींचा लहू से,ये सुंदर चमन बनाया है।


धर्म के ठेकेदार वतन को,बांट रहे हैं टुकड़ों में।

जाति की तेजाब का सागर,डाल रहे हैं चंद झगड़ों में।

जहर गुलामी का पिया था,सभी धर्मों के उन बन्दों ने।

गले को उनके चीर दिया था,फांसी के उन फंदों ने।


झुके नहीं वो किसी के आगे, चलते रहे अंगारों में।

आजादी की शमा जली थी,वतन के उन दिलदारों में।

हंसकर गले लगाते रहे,कष्टों के हर जख्मों को।

रोक सकी न जंजीरें बढ़ते हुए, क़दमों को।


अंधेरों में खुद वों रहे,हमको दिया उजियारा।

एक है रंग लहू का अपना,नहीं ये न्यारा-न्यारा।

आजादी का शहीदों ने,चांद जमीं पे उतारा।

मिट जाएंगे इसके लिए,ये भारत जां से प्यारा।


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