Sudhirkumarpannalal Pratibha

Abstract

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Sudhirkumarpannalal Pratibha

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जिंदगी

जिंदगी

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जंदगी तो

ड्रामा

बन गई है

कभी

श्रृंगार

की तरह

बनकर

सज जाती है

कभी

झंकार

की तरह

रून झुन

करने लगती है

कभी संयोग

तो कभी

वियोग

की तरह

हो जाती है

कभी सोचते हैं

कुछ और

हो जाता है

कुछ और

ऐ जिंदगी

ये सब

तुम

कैसे खेल

खेलते हो

समझ से परे है।



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