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itika chandna

Abstract Tragedy

4  

itika chandna

Abstract Tragedy

जीना आसान नहीं रहा

जीना आसान नहीं रहा

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मैं हर रोज़ की तरह सोफे पर ही सो गयी 

जब उठी तो 

कागजों से घिरे हुई थी 

जिनमें अपने दिल का हाल उतार पाना

आजकल थोड़ा मुश्किल हो गया था 

शब्द बेचैन थे 

और कागज़ पर लिखी लाइनों को देख कर 

ऐसे लगता जैसे मैंने कलम के आँसुओं को बिखेर दिया हो 

कुछ ढंग से खाये पीये हफ्ते बीत गए थे 

न सोने का कोई वक़्त था और न जागने का 

न जाने तुम कब लौट कर आओगे ?

इन चार दीवारों में जब तुम साथ थे 

तो दिल में सुकून के फूल उगते थे 

और अब जैसे बंजर ज़मीन हो 

दिल की हर एक चीज़ जल रही हो

और मैं बैठी सिर्फ देख पा रही हूं 

तुम होते अगर तो मैं बताती की 

जीना आसान नहीं रहा ...

तकिये पर सर रखते ही

दिन ढल गया

सामने बड़ी सी खिड़की की तरफ देखा तो 

आसमान का नीला रंग 

बिना कुछ कहे काला हो गया 

और तुम अभी भी लौट कर न आये 

मैंने फिर कुछ लिखना चाहा

और फिर मेरा कलम खूब रोया 

मगर इस बार शायद वो अकेला न था 

तुम होते अगर तो बताती मैं की 

जीना आसान नहीं रहा ।।


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