जाऊं तो कैसे
जाऊं तो कैसे
दूर देश में है मेरा गांव
नदिया किनारे ताड़ बरगद की छांव।
छोटा और प्यारा सादगी से भरा
ठंडी हवा हरियाली का सुनहरा नजा़रा।
छोटे से घरों में बस्ते हैं दिल के अमीर
दुनियादारी से परे संभाले रखा हैं ज़मीर।
खेत खलिहान में हो ना हो अनाज
जो दस्तक दे नहीं छोड़ते भूख के मोहताज।
अतिथि देवो भवः की जो है परंपरा
फिर चाहे रहें झोंपडी़ में या आलम्भरा।
बहुत अरसे बाद जब गयी आज मैं अपने गांव
नहीं रही नदिया ना रहा छांव।
सब कुछ सूखा, रेत बिक रहा,
अब जलते हैं पांव
ताड़ पेड़ सब कट गये,
मीठे फल कब खाऊं।
लोग चल पड़े, शहरों में अब काम
न रहा सांझा चूल्हा, न रहा शाम का जाम।
खेत उगाते हैं ईंठ न रहा बगीचा आम
आसमान छुऐ बजरी के बक्से घर के नाम।
ज़रुरी हो गया जीने को जो पैसे
अगली बार अपने गांव मैं जाऊँ, तो कैसे।