Sanjay Verma

Abstract

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Sanjay Verma

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हल

हल

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उम्र को बढ़ता देख 

मन ठिठक कर

हो जाता लाचार 

विचारों की लहरें

लगने लगती सूनामी सी।


चिंता की लकीरो को

अपने माथे पर उभारता 

मानो ये कुछ कह रही हो 

बता रही ,आने वाले समय का 

लेखा जिसे स्वयं को 

हल करना।

  

इंसान खुद की बीमारियों पर 

ढाक देता -स्वस्थ्यता का पर्दा 

और बार -बार आईने में देखकर 

अपना अक्श 

मन ही मन कहता,

 

मैं ठीक हूँ

आखिर खामोश आईना 

भी बोलने लगता- 

ये हर घर का मसला 

जहाँ हर एक के मन में आते 

छोटे -छोटे आपदा के भूकम्प।


इंसान को चाहिए की वो

ईश्वर और कर्म से कहे कि

ऐसे इंसानो की मदद करें 

जो अपने भाग्य में 

खोजते रहते 

इन मसलों का हल।


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