हजार के नोट की व्यथा
हजार के नोट की व्यथा
कभी ख़्वाहिश था लोगों की
अब मर चुका हूँ, उनकी नज़रो में
एक योजित मौत
उन गुनाहों के लिए, जो मैंने किये ही नहीं
की मेरा चरित्र कभी बदला ही नहीं
कभी भी, कही भी
कि चाहे रहा, नरम उंगलियो का स्पर्श
या की फिर, सख्त़ हाथों का अहसास
या घिसी हुई, कमज़ोर और दरारों वाली
नाज़ुक हथेलियां
खुश ही रहा, की चाहे कही भी ठूसा गया
या बंधा रहा महीनों, उस साड़ी के पल्लू से
या हर शख्स़़ के थूक से, स्वागत हुआ
और फिर चला आया, आलिशान कोठी में
हाँ कभी रोना भी आया
जब पटका गया, टेबलों पर तो कभी नीचे से
दिखाया गया, बेइज्ज़ती से
लोकतंत्र के विशाल मंदिर में
कही बेहतर थी वो कच्ची बस्ती
जहाँ बड़ी इज्ज़त थी
पर चलता रहा, जैसी आदत थी
हर जगह रहा मेरा नाम
प्यार-प्रीत में, हार और जीत में
झूठ और फ़रेब में
राजनीति में, धर्म में
आतंक में, दंगो में
हर गुनाह का मूल बनाया गया मुझे
हर उस शख्स़ ने कोसा मुझे
जिसके पास मैं नहीं था
पर मैं कहा बदला
कोठों पर उड़ा, मंदिरो में सजा
की कभी बना भावों का वाहक
लेकर आंसुओ की नमी
बुज़ुर्ग माँ से बेटी को
क्या क्या नहीं देखा
इंसानियत से हैवानियत तक
सब बदल जाते थे देखकर मुझे
पर मैं नहीं बदला
फिर भी निकाल दिया फरमान
मौत का मेरी
उन गुनाहों के लिए, जो तुम्हारे हैं
मैं तो बस अक्स हूं तुम्हारा
की कर पाओगे अहसास कभी
अपने गुनाहों का
और निकाल पाओगे
फरमान अपने खिलाफ
अपनी मौत का...