गुनाह
गुनाह
छोड़ दी कोशिश मैंने सबको बदलने की,
शिद्दत से थी जरुरत खुद ही संभलने की।
नक़ाब बदलता रहा करके गुनाह मैं,
आदत अपनी रही थी औरो पे कसने की।
ज़हन में मैल थी नजरें बाहर मगर,
चाहत थी खुद की पोशाक बदलने की।
ज़मीर के गुनाहों से गन्दा अमिताभ यूँ के,
फितरत नहीं है इनकी गिर के संभलने की।
