Dr. Deepak Saxena

Abstract

4.4  

Dr. Deepak Saxena

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ग़ज़ल जिंदगी की

ग़ज़ल जिंदगी की

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जब भी यूँ ही रूहानी सा हुआ ,

खुद को गजल में गढ़ लिया मैंने।


कौन हूँ मैं ,

मकसद है क्या ,

आने का मेरा,

 कुछ यूँ ही खयालात रचता है हर कोई ।


क्यों न पूछे ए जिंदगी, 

तेरे लिए

किया ही हमने है क्या,

कर सकते थे हम क्या नहीं।

 

रूहानी होना, जज्बाती होना,

जायज़ है एक हद तक,

 दे पाएँ गर सुकून हम यूँ ही किसी को,

खिला पाएँ गर चेहरे के किसी को, 

किसी गज़ल से ये कुछ कम तो नहीं।


जिम्मेदारियाँ अपनी, अपने अपनों के लिए

होती हैं शेर ए गज़ल जिंदगी की।


मुकम्मल कर ये शेर, आहिस्ता आहिस्ता ,

बन जाएगी गज़ल ,

मुस्काएँगे चेहरे तेरे अपनों के


बस यूँ ही हर शेर गढ़ता जा कुछ इस तरह,

हो जाय खुशनुमा ये जहाँ ।

रोशन हो हर चेहरा 

मुकम्मल हो जिंदगी।


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