गीत
गीत
उतरी पीड़ा के पर्वत से,
बही वेदना की घाटी।
साथ लिये चलती है सुख दुख,
ये इसकी है परिपाटी।
संबंधों के शुष्क खेत में,
बिछ जाती बन मृदु माटी।
पर इसके लेखे भी रहती,
इसकी नेकी और बदी।
मुझमें बहती एक नदी।
कभी शांत निश्छल बहती है,
अंतस भावों के वन में,
कभी क्षिप्र धारा बन बहती,
मानस के सूखे रन में।
प्रेम सिंधु के बाहुपाश में,
जा छिपती है इक क्षण में।
रुकती नहीं रोकने से भी,
जाने कैसी है जल्दी।
मुझमें बहती एक नदी।
टूट टूट जाते हैं इसके
कच्चे धागों से तटबंध,
स्वयं तोड़ कर रख देती है,
खुद से किये गये अनुबंध।
रही झेलती है प्रवाह में,
अपने यह सौ सौ प्रतिबंध।
यूँ गुजारती रहती मुझमें
अपनी पूरी एक सदी,
मुझमें बहती एक नदी।
