घर होने का अहसास
घर होने का अहसास
एक अजीब सा पुरानापन
अपनी ओर खींचता ठहराव
जाने पहचाने से लकड़ी के तख्ते
रिश्तों सा उनके अन्दर का खोखलापन
उस खोखलेपन में भरी पुरानी दीमक
मिट्टी के महल बनाती
वही जानी पहचानी सी चींटियां
नई पुरानी यादों में उलझे, मकड़ी के जाले
छत को घर बना चुका वो कांच का मर्तबान
धूप के स्वाद को अपने रस में सोखता, आम का अचार
सिर पर लहलहाता मेरा हम उम्र नारियल का पेड़
रसोई के शोर से छनकर आती घी की खुशबू
धूल के बोझ से फर्श को लगते अल्हड़ से परदे
आरती और अज़ान के अंतराल को भरती
गुरबाणी की मिठास
दो ग्राम धूप सेंकती दो खाली कुर्सियां
और इस सब के बीच अंगड़ाई लेता
ढेर सारा खाली वक्त, आरजी सुकून,
और मेरे घर होने का अहसास!
