गांव हमारा बूढ़े वृक्ष सा
गांव हमारा बूढ़े वृक्ष सा
शहर कितना सयाना
गांव हमारा बूढ़े वृक्ष सा
पुराना हो गया
गांव में देखते ही देखते
रियाली से पतझड़ का
ठौर-ठिकाना हो गया।
शहर ने निगला
हमारे प्यारे
गांव का भोलापन
धीरे-धीरे
घटता चला गया
सम्बन्धों में अपनापन।
मित्रता में अपनापन नहीं
द्वेष कपट दम्भ
कुंडली जमाये बैठे
मधुरिम रिश्तों की
स्नेही डोर टूटी
स्वार्थी इतराये बैठे
व्हाट्सएप्प हाइक
फेसबुक ट्वीटर।
जी-मेल का जमाना हो गया
स्नेहिल चिट्ठियों का
आदान-प्रदान
फॉर्मूला पुराना हो गया
पेड़ों के कटने से
गांव खंडहर हुआ
वीराना पसरा है।
वृक्ष की डाली से
नीड़ चिड़ियाँ का
धरती पर बिखरा है
शहर में फेसबुकी दोस्ती
हैं कइयों को
लगती अनमोल।
बहरूपिया बना मनुष्य
ठगे एक दुसरे को
बोलकर मीठे बोल
गांव के पीपल,
नीम, आम, बड़
दिखें बेहद उदास।
स्वार्थी मनुष्य पेड़
काटकर बुझाये
हैं पैसों की प्यास
शहर सुख-सुविधाओं
से भरा पड़ा सयाना हो गया
गांव हमारा झुर्रियों वाले
बूढ़े वृक्ष सा पुराना हो गया।