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SOURABH SINGH

Abstract

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SOURABH SINGH

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एक उम्र का पड़ाव

एक उम्र का पड़ाव

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एक उम्र का पड़ाव

अब ढलने सा लगा है

क्यों शांत बैठा यह मन

अब मचलने सा लगा है।


है खुशियां झोली में कई

जिसे देख मुस्कुरा सकता हूँ

फिर क्यों सिफारिश

रखता हूँ उस चांद की

जिसे हकीकत में

यूं ही पा सकता हूँ।


ना जाने क्यों आजकल मैं

उन जज्बातों को जान नहीं पाता

हालातों को परख कर भी

क्यों ये मन शांत नहीं रह पाता।


क्यों परछाई में आज भी

वो सिकन नजर आ रही है

क्यों उस राह की चाह में

आज तेरी कमी सता रही है।


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