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Dr. Om Prakash Ratnaker

Abstract

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Dr. Om Prakash Ratnaker

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एक नकाब दिखने लगा है

एक नकाब दिखने लगा है

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कहते हैं ज़िन्दगी बहुत बड़ी है, जीने के लिए

मगर मुझे ये कमतर सा लगने लगा।


लोग तन्हाइयों में बिता देते हैं वक़्त अपना

मगर मुझे महफ़िलों में भी तन्हा सा लगने लगा है 

ना जाने कौन सी बात पर, अनबन हो गयी उनसे

अब मेरे सवालों में भी उनका जवाब दिखने लगा है।


इक़ खाशियत है इस दुनिया की

कि लोग मुहब्बत में ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं 

मगर मुझे लोगों के दिलों में, दिमाग देखने लगा।


कई चेहरें हैं अपने- अपने हिसाब से

बड़ा मुश्किल हो गया है फ़र्क करना

कहने को तो सब अपने हैं,

हे राम! “तुम्हारे युग का रावण अच्छा था”


चेहरे दस, सब के सब बाहर रखता था

मगर अब तो हर चेहरे में एक नकाब दिखने लगा।

अपने आप को बहुत समझदार समझता था मैं

बात पे बात हर बात किया करता था मैं

कैसी रहमत है ये खुदा की

कि ये इश्क़ मोहब्बत, अब सरे बाज़ार बिकने लगा है।


हम अपने आप में ही मशगूल रहा करते थे कभी

फिर भी कुछ पाने को मुन्तज़िर रहा

जब ज़िन्दगी के राहों पे चलना ना आया

तो मैं ज़िन्दगी जीने का सलीका सिखने लगा


मैं हर वक़्त बस वक़्त को कोसता रहा

कि कुछ समझ नहीं आता

मगर “किसी ने धूल क्या झोंकी आँखों में

कम्बखत पहले से बेहतर दिखने लगा।


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