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Diksha Raghav

Abstract Inspirational

5.0  

Diksha Raghav

Abstract Inspirational

एक लौ

एक लौ

2 mins
508


अंधेरी रात में एक दीया जल रहा था

यूँ तो साथी उसके और भी थे

पर उन हवाओं के आगे उनकी कहाँ चल पाती

शायद वो जानते थे, शायद नहीं

शायद वो लड़े, शायद नहीं

खो गए बस

हो गए उसी अंधेरे में गुम


पर उस अंधेरी रात में एक दीया जल रहा था

उसकी लौ में अब वो बात नहीं थी

पर चलो, थी तो सही

क्या कह गयी उससे वो रात

जो सहमा सा था वो

क्या कह गया वो उन हवाओं से

जिन्होंने रुख़ मोड़ लिया, उसे तन्हा छोड़ दिया


ना जाने क्या कहना था उसे तुमसे

क्या उसे भी दिख रही थी

तुम्हारी लौ

जिसमें अब वो बात नहीं थी ?

कहीं वो जानता तो नहीं था

कि तुम भी सहमे हो उस रात से

पर उन हवाओं का रुख़ मोड़ ना सके

बिलकुल उसके साथियों की तरह


फ़िर भी उस अंधेरी रात में एक दीया जल रहा था

अब भी

थका हुआ

लेकिन हारा हुआ नहीं

पर तुम समझौता कर बैठे थे

उस रात से कि वो और ना सहमाये

उन हवाओं से कि वो और ना सताएँ

खोने तैयार थे तुम

अंधेरे में पहचान तुम्हारी

खामोशी में आवाज़ तुम्हारी


पर तुमने तो सुकून ही खोज लिया


उसी अंधेरी रात

कोई तो था

अड़ा हुआ सा

थका हुआ सा पर अड़ा हुआ सा

कुछ दिक़्क़त थी उसे

तुम्हारे सुकून से

और फ़िर पलक झपकते ही

वो हार गया

ख़त्म

और तुम

तुमने तो उसकी लड़ाई देखी थी ना

कुछ पल के लिए ही सही,

लौ कम उजली की सही

जगमगायी तो


अंधेरा लौट आया

पर वही सुकून अब तुम्हें चुभता है

तुम्हें लड़ना है

तुम्हें जलना है

इक आख़िरी बार ही सही

तुम्हें चमकना है

उसके साथियों से कहना है

कि वो सही था

उसकी ज़िद्द फ़िज़ूल नहीं

उसका अंत था हार नहीं


अंधेरी रात में उसे देख आज फ़िर एक दीया जलेगा।


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