दर्द - ए - इश्क
दर्द - ए - इश्क
चुपचाप चल दिये हम तेरे शहर से,
भटका हुआ मुसाफिर था,दिल लगाया गैरो से।
जानता हूं रेत पे नाम नहीं लिखा करते,
मिट जाता है तेरा नाम बार बार सागर की लहरों से।
यही वह समंदर हैं जो गवाह हैं तेरे लिये मेरी मोहब्बत का ,
यही वह किनारा हैं जिसने देखा हैं सैलाब मेरी उलफत का।
मासूम दिल की खता बस इतनी थी की तेरी दोस्ती को वो इश्क समझ बैठा ,
तुम क्या जुदा हुई , तबसे मानो मेरा मुकद्दर रुठा।
आंखो से तेरी ओझल होकर अब रुठे रब को मना रहा हूं ,
अपनी ही वफा की खताये अब अपने आप को गिना रहा हूं।
अब दोबारा ना लिखी जायेगी हमसे ये इश्क - ए - दास्तां ,
मना लेंगे हम अपने दिल को की ना करे वो हर किसीको तेरी बेवफाई बयां।

