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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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दोहा मुक्तक

दोहा मुक्तक

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दोहा मुक्तक ****** मर्यादा ****** मर्यादा का अब कहाँ, रखता मानव ध्यान। कारण वो तो हो गया, आज बड़ा विद्वान। देख-देख  कर  सभ्यता, डरी  हुई  आज, कलयुग का यह ज्ञान है, या फिर है पहचान।। मर्यादा  का  ढोल  क्यों, पीट  रहे  हैं  आप। जान-बूझ या भूल कर, इतना ज्यादा पाप। नहीं जानते क्या  भला, या  बनते  अंजान, कल में ही बन जायेगा, आज भूल अभिशाप।। ******* सभ्यता ******* आज सभ्यता रो रही, दोषी हैं हम-आप। नहीं ज्ञान का बोध है, शीश  ले  रहे पाप। जाने  कैसा  समय  है, कैसे  -कैसे  लोग, आज स्वयं के नाम का, करते रहते जाप।। बता  रही  है  सभ्यता, कैसे  होंगे  आप। करते कितना पुण्य हैं, कितना करते पाप। पर्दा  जितना  डालते, सब  होता बेकार, कितना मिलता आपको, नित्य बड़ों का शाप।।   ********* विविध  *********** नाहक ही नाराज़ हो, क्या कर लोगे आप। दिलवा दूँ क्या आपको, मैं भी कोई शाप।। कहना मेरा मान लो, रहना यदि खुशहाल, आप यार यमराज का, करते रहिए जाप।। कुछ लोगों के रोग का, कोई नहीं इलाज। जिनके मस्तक है सजा, जूतों का नव ताज।। समझाना  बेकार  है, ये  सब  बड़े  महान, करो खोज मिलकर सभी, क्या है इनका राज।। दीप  पर्व  देता  हमें, नव  जीवन  संदेश। इस पावन त्योहार का, अद्भुत है परिवेश। राम प्रभो को कीजिए, आप सभी तो याद, मन से मित्र मिटाइए, अपने सारे क्लेश।। बेमानी है आपका, इतना सोच विचार। सबकी अपनी सोच है, अलग-अलग आधार। व्यर्थ आप हलकान है, लगता हमें विचित्र, बुद्धिमान इतने बड़े, समझ लीजिए सार।। राजनीति के रंग का, अजब-गजब है रंग। जनता भौचक देखती, होती दिखती दंग। इतनी भोली है नहीं, जितनी दिखती आज, कहना पड़ता इसलिए, पी रखी है भंग।। दर्शन पाने का नहीं, करिए आप विचार। अपने चाल चरित्र का, पहले देख विकार।। भला ढोंग से क्या कभी, होता है कल्याण, नहीं देखते  स्वयं जो,  अपने ही संस्कार।। चलो मृत्यु से हम करें, मिलकर दो-दो हाथ। आपस में सब दीजिए, इक दूजे  का साथ। मुश्किल में मत डालिए, नाहक अपनी जान, वरना  सबको  पड़े,  सदा  पकड़ना  माथ।। दिल्ली में विस्फोट से, दुनिया है हैरान। इसके पीछे कौन है, सभी  रहे  हैं जान। मोदी जी अब कीजिए, आर-पार इस बार, नाम  मिटाओ  धरा  से, चाहे जो हो तान।। वो भिखमंगा देश जो, बजा रहा है गाल। शर्म हया उसको नहीं, भूखे मरते लाल। युद्ध सिवा उसको‌ नहीं, आता कोई काम, गलती उसकी  है नहीं, पका रहा जो दाल।। सुधीर श्रीवास्तव 


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