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Sakshi Arora

Tragedy

4  

Sakshi Arora

Tragedy

दिसंबर की रात।

दिसंबर की रात।

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दिसम्बर की सर्द वो शाम सी थी 

निकली घर से मैं कुछ काम से थी

वक़्त कुछ 6 से 7 का था 

थोड़ा अँधेरा हो चला था

सड़क पर मैं ऑटो के इंतज़ार में थी 

एक गहरी सोच के मझधार में थी।

अचानक से एक ऑटो जो आया 

उसने बस स्टैंड था चिल्लाया 

मैं ऑटो में सवार हो गयी 

और फिर बस रास्तों को गाड़ियों को देखने लगी। 

अचानक से जो मैंने सामने वाली सीट पर देखा 

गन्दी नज़रो से कोई मुझे घूर रहा था।

मुझसे वो नज़र बर्दाश्त न हुई 

सोच की कश्ती मझधारो से आज़ाद फिर हुई 

और मुझे उस नज़र से घिन्न होने लगी 

लगातार वो अपनी नज़रों से मुझे ताक रहा था 

मेरे बंद कपड़ों में जाने क्या झाँक रहा था।

मेने उस से नज़र हटाई, फिर देखा 

फिर नज़र हटाई और देखा 

अंदर से खून मानो खौल रहा था

क्यूंकी उसकी नियत ने मुझे असहज था किया। 

सवालों के घेरे में उस पल मेरा वज़ूद था खड़ा 

क्या लड़की होना वाकई में है कोई गुनाह?

गर तुम सोचते हो,

अत्याचार की वजह लड़की के कपडे है 

तो मैं तो सर से पाव तक थी ढकी 

तो मुझ पर वो नज़र क्यों थी पड़ी?

गलती कपड़ों की नहीं तुम्हारी सोच की है 

ये कहानी एक दिन की नहीं हर लड़की की है 

और हर रोज़ की है।

अब समझ आ रहा था 

क्यों माँ अँधेरे में भेजने डरती है 

क्यों घर देर से आने पर बार-बार फ़ोन करती हैं।


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