दिल के रंग
दिल के रंग
🔥 दिल के रंग 🔥
💥 तामसिक श्रृंगार काव्य 💥
✍️ श्री हरि
🗓️ 8.11.2025
रात अब केवल अंधकार नहीं,
वह किसी देह का मखमली विस्तार लगती है —
जहाँ चाँदनी नहीं उतरती,
सिर्फ त्वचा की तपिश धड़कती है।
हवा में गंध है —
भीगे कंधों की, पसीने में भीगे फूलों की,
और उस अधूरी चाह की
जो हर साँस के संग सुलगती जाती है।
दिल के रंग अब कोमल नहीं,
वे गाढ़े, ज्वलंत, भस्मरूप हो उठे हैं।
हर स्पर्श अब वचन नहीं,
एक अव्यक्त आमंत्रण है —
जहाँ उँगलियाँ प्रश्न नहीं करतीं,
बस उत्तर ढूँढती हैं देह की लिखावट में।
उसकी आँखें —
जैसे दो अधजले दीपक,
जिनसे रौशनी नहीं, केवल ताप झरता है।
उसकी साँसें —
मानो किसी ज्वाला का संगीत हों,
जो शब्दों से नहीं, त्वचा से बोलती हैं।
वह मुस्कराती है —
जैसे किसी पाप का सौंदर्य बन जाए,
जैसे किसी मंदिर के भीतर
किसी वर्जित देवता की मूर्ति रख दी जाए।
उसके होठ —
शराब नहीं, पर उससे भी गाढ़े,
जो एक बार लग जाएँ,
तो वर्षों तक नशा उतरता नहीं।
उसके गले की लकीरों में
किसी भूली हुई प्रार्थना की गूँज है,
जो हर चुंबन के साथ
थोड़ी और अधर्मी हो जाती है।
यह प्रेम नहीं...
यह देह की भाषा का उत्थान है —
जहाँ आत्मा अपने ही वासनामय रूप में समाधि लेती है।
यह वह क्षण है
जहाँ नैतिकता की राख उड़ती है
और इच्छा स्वयं देवता बन जाती है।
दिल के रंग अब लहू से भी गहरे हैं,
इनमें पवित्रता नहीं, पर सत्य है —
वह सत्य जो नग्न है, पर दिव्य है,
जो अपराध है, पर अमृत है।
क्योंकि प्रेम जब चरम पर पहुँचता है,
तो वह धर्म नहीं माँगता —
वह बस देह माँगता है...
और उस देह में छिपा
वह नाद — जो ईश्वर से भी प्राचीन है।

