धरा पर यौवन हुआ आच्छादित
धरा पर यौवन हुआ आच्छादित
पुष्प पल्लवित मकरंद प्रवाहित सुसज्जित उर्वी की काया,
देख घटा घनघोर धानी चुनर में प्रकृति श्रृंगार सिमट आया।
इतराती रवि रश्मियां करे अटखेलियां धरा के ललाट पर,
पिक सारंग संग चहकी अचला मादकता के एहसास पर।
हिम फुहार की शीतलता पुष्प अधरों पर मचल रही,
भ्रमरों के मादक गुंजन से अधखिली कली सिमट रही।
प्रसून मंजरी से आभूषित उर्वी यौवन ललित ललाम,
आच्छादित बूंदे हठ चुंबन करती दिवस रात्रि याम।
प्रणय मिलन को आकुल बदरी कर रही है बौछार,
ऋतुराज आगमन से तृप्त धरा में हुआ नवजीवन संचार।
वारीधर वेधन को तत्पर सहकार पवन का झोंका,
मारुत मिलन से संतृप्त रत्नगर्भा का है अंग अंग महका।
रोम-रोम सुरभित धारा का अंग-अंग हुआ जाए सुभाषित,
कुसुम लताएं फलित धरा पर यौवन हुआ आच्छादित।
दुग्ध धवल उज्ज्वल अति तृप्त हुई जाए स्निग्ध बदरा,
पीहू कुहू की चहक सुन सुधबुध खोती अब वसुंधरा।
मंद मंद मुस्काता प्रकंपन बदरी के पट खोल रहा,
नयनाभिराम धरा दर्शन से उसका भी मन डोल रहा।
सोलह कलाऐं हुई विस्मृत निहार उर्वी का सोलह श्रंगार,
अति व्याकुल है चंद्र अब करने धरा को अंगीकार।
इठलाती धवल चंद्र कलाएं बजा रही प्रेम धुन रागनी,
धरा के चुंबन की इच्छुक आई बादलों के रथ पर चांदनी।
बज उठी चंहुओर जलतरंग गा रही प्रकृति मंगल गान,
प्रलंबित दुग्ध शशिकलाएं कर रही अमृत का रसपान।