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Shubhra Varshney

Abstract

3.9  

Shubhra Varshney

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कहाँ से लाऊं

कहाँ से लाऊं

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उम्मीद की छोटी चुनर में

चिंता सुराख करे जाती है 

बढ़ती फिक्र पर सुख की तुरपाई

दुख के पैबंदों को कहां छुपाती है

जो क्लांत मन को ढक सके

वह सुख की चादर कहां से लाऊं?


आसमां झुक झुक जाता है

चांद सितारे खाक हुए जाते हैं

गीत संवल गए साज चुप हुए

आंसू दिल की तहरीर लिख जाते हैं

जो छू सकें टूटे अंतर्मन को

वह महकते ख्वाब कहां से लाऊं?


आसमां में तैरता चांद अक्सर

राहों में यूं ही खो जाता है

बंद पलकों में जुगनू रोज आकर

अंखियों में रात कर जाते हैं

जो भर दे निंदिया आंखों में

वह मीठी रात कहां से लाऊं?


रास्ते खंडहर हो जाते हैं

शहसवार रुक से जाते हैं

खुद में डरी सिमटी कलियां

फूलों की महक पी जाती हैं

इस पत्थर होती बस्ती में

जान जगाती रुह कहां से लाऊं?


बचपन की बिखरती दुनिया में

यौवन का दरिया उमड़ता है

दिल का नरम बिछौना भी

जख्मो की तपिश से जलता है

जो ख्वाबों को सहला जाए

वह धड़कते जज्बात कहां से लाऊं?


सजदे करने इस धरती से

आसमां भी झुक के आता है

काली रात के सीने में भी

तारा प्यार का टिमटिमाता है

जो गाए संग प्रीत का गाना

वह रहनुमा हमज़ुवां कहां से लाऊं?


खिंची खिंची अंखियों के सामने

खनखनाती शाम गुजरती है

है वक्त का कसूर या है मेरा

 खुशियों को खोखला करता है

जो ला दे खुशियां फिजाओं में

वह मीठी झंकार कहां से लाऊं?


ना तन्हा पशेमां हुआ यहाँ 

ना ही वक्त मसरूर था

जब ख़बर नहीं अपने-आप की

क्या आता ख्याल अधूरे प्यार का

जो चमका दे चांदनी प्यार की

वह झूमता सुरूर कहां से लाऊं?





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