देखा!!! फिर भी नहीं देखा
देखा!!! फिर भी नहीं देखा
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गर्मी में तपश को झेलता
सर्दी में ठंडक से जूझता
आधे अधूरे कपड़ों में
चप्पल और जूतों के अभाव में
देखा तुम्हें शहर के कितने चौराहों पे
देखा!!! फिर भी नहीं देखा
भूखे पेट तो कभी कम कभी ज्यादा उम्मीद
में डूबते और तैरते देखा....
ना अपना कहने को कोई ठिकाना
ना अपना कहने को कोई बिछौना
इतने बड़े जहान में तुम्हें
पत्थरों पटरी मिट्टी धूल
में जगह बनाते देखा
देखा!!! फिर भी नहीं देखा
मैले हाथ, उलझे बाल
प्यास से तुम्हें लड़ते देखा
हर शीशे पर खटखटाते
>
हाथ फैलाते
और फिर अगली लाल बत्ती
का इंतज़ार करते देखा
देखा!!! फिर भी नहीं देखा
सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम
और शाम से रात को
यू ही गुजरते देखा
दिनों को महीनों में और
महीनों को सालों में तबदील होते देखा
पर तुम
तुम्हें तो उसी चौराहे पर .....
तपश और ठंडक में
उसी हालात उसी मकाम पर
हर मौसम में भीगते और सूखते देखा
यह दिखने और फिर भी ना दिखने वालों को
क्या तू भी कभी देखता है
पर लगता है देखता है .....
और फिर भी नहीं देखता!!!