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Sunita Nandwani

Abstract

4.5  

Sunita Nandwani

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देखा!!! फिर भी नहीं देखा

देखा!!! फिर भी नहीं देखा

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212


गर्मी में तपश को झेलता

सर्दी में ठंडक से जूझता

आधे अधूरे कपड़ों में 

चप्पल और जूतों के अभाव में

देखा तुम्हें शहर के कितने चौराहों पे


देखा!!! फिर भी नहीं देखा


भूखे पेट तो कभी कम कभी ज्यादा उम्मीद

में डूबते और तैरते देखा....

ना अपना कहने को कोई ठिकाना

ना अपना कहने को कोई बिछौना

इतने बड़े जहान में तुम्हें

पत्थरों पटरी मिट्टी धूल

में जगह बनाते देखा


देखा!!! फिर भी नहीं देखा


मैले हाथ, उलझे बाल

प्यास से तुम्हें लड़ते देखा

हर शीशे पर खटखटाते

हाथ फैलाते

और फिर अगली लाल बत्ती 

का इंतज़ार करते देखा


देखा!!! फिर भी नहीं देखा


सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम

और शाम से रात को 

यू ही गुजरते देखा

दिनों को महीनों में और

महीनों को सालों में तबदील होते देखा

पर तुम

तुम्हें तो उसी चौराहे पर .....


तपश और ठंडक में

उसी हालात उसी मकाम पर

हर मौसम में भीगते और सूखते देखा

यह दिखने और फिर भी ना दिखने वालों को

क्या तू भी कभी देखता है

पर लगता है देखता है .....

और फिर भी नहीं देखता!!!



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