देखा है
देखा है
शब शब भर शबनम को बिखरते देखा है
जब हुई सहर तो फूलों को खिलते देखा है
इश्क पिलाया मुझ को आँखों ही आँखों से
आँखों ही आँखों में ये रात गुजरते देखा है
जब जब बिखरी थी जुल्फें तेरी जानम
बिन मौसम मैंने बादल को बरसते देखा है
गर महसूस किया तुझ को एहसासों में
सर्द चांदनी में खुद को पिघलते देखा है
छुपा के दर्द की बदली ओट में पलकों के
हँसती आँखों में अश्कों को उतरते देखा है
नूर था आँखों मे जिसकी छांव थी महलों की
रेत पे सहरा की नंगे पाँव भी चलते देखा है
"विजय"गैरों की कहें क्या साया अपनों का छूटा
इन आँखों ने वक्त वक्त पे वक्त बदलते देखा है।

