देह माटी की
देह माटी की
किस अहं को लेकर तू है जीता,
कि बात का तुझको है नशा,
जीत-हार सब यही धरा,
यह तो दुनिया का है फेरा,
धन-दौलत किसी की रही नहीं,
यह देह तो तेरी माटी की,
इक दिन माटी ही हो जाएगी,
क्यों घमंड करते तुम स्वयं पर...?
है तुम से कोई महान नहीं,
ऊपर बैठा जो देख रहा...
उससे बड़ा बलवान नहीं,
आज इस बात पर तुम इतराते हो,
जिस वक्त को तुम अपना समझते हो,
पल में यह तो बीत ही जाएगा,
ना कभी किसी का हुआ....
तुझसे बंध क्या रह पाएगा ..?
यह घमंड भाव जो तुझ में है,
तेरे अपने ..तुझसे रूठेंगे,
लाख सब होगा तेरा.. पर,
इस जीवन पथ पर रहेगा तू अकेला,
ना कोई संगी न साथी होगा,
संभल जा अब तू ..
इस घमंड भाव का परित्याग कर,
तू इस सच को स्वीकार कर,
बंद मुट्ठी ले जन्मा तू... मुट्ठी खोल कर जाएगा।
