उड़ती चिरैया
उड़ती चिरैया
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आज मन की दहलीज लांघ,
उड़ चला बावरा सा,
आकांक्षाओं की सुंदर बगिया,
रंग-बिरंगी तितलियों संग,
कभी बचपन की गलियों में ,
तो कभी सखियों की बतियों में,
उड़ते-उड़ते मेरा मन,
जा पहुंचा बाबुल की दहलीज पर,
याद आ गया वह पल,
जब लाल जोड़े में दहलीज लांघ,
बाबुल के अंगना की .....
मां - बाबा, भाई - बहन,
घूम गए नजरों में,
चल पड़ी नए सफर को,
मुड़ कर देखा बाबा को,
भर आई आंखें मेरी भी,
बाबा की दहलीज में ,
मैं उड़ती चिरैया आंगन की ,
अनजानी राह,
अनजाने राही के साथ ,
ससुराल की दहलीज में पांव रखते ही,
नए एहसास, नए रिश्तों का मान,
कर्तव्य, जिम्मेदारियां,
बच्चों की किलकारियां,
सबको भर आंचल में समेट...
सुंदर सपनों का संसार लिए ,
खड़ी दहलीज पर.....
मन को ले आई,
पुनः दहलीज के अंदर।
