डर
डर
गर मन है मेरा साफ़
तो दिल पर क्यों है डर की छाप।
जब पाप नहीं है दुःख का कारण
तो पुण्य कैसे होगा इसका निवारण।
डर अदृश्य है, समीप है
बुझाता आशा के सब दीप है।
समाज कहता डर से ये करो, वो करो,
जो भी करो मुझसे इसको दूर रखो।
जो तुम्हारे डर को मैंने देखा
बनाकर नासूर अपने स्वार्थ मैंने सेका।
जो डर के सागर में, जब राम है मैंने चीख़ा
तब आत्मविश्वास का एक पत्ता दीखा।
जब डर की विश्वास से तकरार हुई
एक पत्ते से भी नैय्या पार हुई।
हो निर्भीक, हो अटल
करना ख़ुद पे यक़ीन, जब-जब डर दे दख़ल।
