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Rupam Kumar

Abstract

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Rupam Kumar

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चरागों की यारी हवा से हुई है

चरागों की यारी हवा से हुई है

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चरागों की यारी हवा से हुई है

ख़तम तीरगी है, तभी रोशनी है।


इबादत में होना असर लाज़मी है

वो नाज़ुक कली जो दुआ कर रही है।


बिछावन मिरा क्यूँ सजाए गुलों से

की आँखों में नींदें बची ही नहीं है।


है गर्मी के मौसम में सर्दी का आलम

लिपट के वो मुझसे पिघलने लगी है।


मैं आ तो गया हूँ फ़लक से वो लेकर

जो माँगी थी तुमने वही चाँदनी है।


मुहब्बत की छा में जो थक के हूँ बैठा

खुला आसमां है तुम्हारी कमी है।


यहाँ कुछ न कुछ तो सभी ने है खोया

जो सब कुछ हो हासिल तो क्या ज़िंदगी है।


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