बूढ़ा सा दिसंबर
बूढ़ा सा दिसंबर
एक बूढ़ा सा दिसंबर,
सेंक रहा दुपहरी की धूप,
उठा रहा फेंके हुए छिलके,
बदल रहा उसका भी स्वरूप।
बांध रहा पोटली अपनी,
अंत बस कुछ पास है
कितनी मीठी खट्टी यादें,
जीवन जब तक सांस है।
जनवरी की शीत भी देखी,
मार्च का मधुमास भी,
मई का उफनता ताप देखा,
जुलाई में बारिश की आस भी।
कुछ खुशी के फव्वारे देखे,
कुछ गम की शाम भी ,
कुछ दौड़ते भागते कदम,
कुछ क्षण का आराम भी।
देखे जन्म के उत्सव कहीं,
देखा मृत्यु का नाच भी,
अनजानों का दोस्ताना देखा,
अपनो की द्वेष की आंच भी।
अब जब क्षण कुछ ही,
दिल में बस ये आता है,
शेष कभी कुछ होता नहीं,
सिर्फ़ रूप बदलता जाता है।