बुजुर्गों बिन घर, घर नहीं लगता
बुजुर्गों बिन घर, घर नहीं लगता


बुजुर्गों बिन दरखते घर की भी अब घर नहीं लगती,
मकानों में बुजुर्गों बिन अदब की ह़द नहीं मिलती।
दादी नानी जी के बिन रौनकें घर की कब रहती,
कहानी क़िस्से बिन रातें सदा वीरान सी लगती।
नजारा बतकहीं का दूर तक अब नहीं लगता,
मकां जो कल हमारा था हमारा अब नहीं लगता
नसीहत झुर्रियों से जो सदा बोलो से मिलती थी,
शिकायत खाट है करती नहीं आराम कब करती।
बुजुर्गों की छाया में सदा पनपते रहे पौधे,
धूप की आंधियों में अब घर,घर नहीं लगतें।
भंवर में उलझी नैय्या का किनारा अब नहीं मिलता,
होगा ठीक बेटा सब कोई अब यह नहीं कहता।