बस,अब और ना बेचारी मैं
बस,अब और ना बेचारी मैं
जान लिया है मैंने अब
ज़रूरत पे काली का रूप लेना
सीख लिया है मैंने अब
मर्ज़ी से ज़िंदगी को जीना।
चलती अपने मन की आवाज़ पे
दुनिया के ताने और ना सुनती मैं
बिखरे हैं मोती तो बिखरे रहें
उनको किसी धागों में ना बुनती मैं।
रखती हूँ इतना सामर्थ्य मैं
कि हिला सकती बड़े से बड़ा पहाड़
लोमड़ी नहीं, शेरनी हूँ मैं इस सदी की
टिक ना सकोगे सुन के खौफनाक दहाड़।
है कुछ ख्वाब मेरे भी
करूँगी अपने दम पे साकार मैं
समाज के डर से कुचले ना कभी
दूँगी उन्हें खुद नया आक़ा
र मैं।
18 नहीं है उम्र शादी की मेरी
ना ही 25 पे मैं बहुत बड़ी हुई
रहूंगी सपनों से ही ब्याही
जब तक पैरों पे ना खड़ी हुई।
रहे मेरा खुद का एक वजूद
बस यही छोटी सी मेरी चाहत है
राहत मिलेगी पहचान पाकर ही
वरना जारी हर पल ये बग़ावत है।
बीत गयी सदिया इस ज़ुल्म में
सह लिए चुपचाप सारे अत्याचार
समय है ख़त्म करूँ सब
और दूँ खुद को, आज़ादी का उपहार।
चौंकिये मत जनाब, कोई नया जन्म नहीं
हूँ तो वही पुरानी नारी मैं...
पर बस,
अब और ना बेचारी मैं।