ब्रह्माण्ड
ब्रह्माण्ड
चंद लम्हों में छुपकर बैठा था मैं
पिछली रात की तन्हाइयों को सवेरे से लगा कर
खुद की हैसियत से खुद को दबा कर
फिर गिरा था नाम को मिटा कर
अपने सम्मान को गला कर
अपमान को भुला कर
समय को झुलसा कर
खरोंच को जला कर
बैठा था कोने में सब से छुपा कर
अब फूट जाना चाहता हूँ
शब्दों को पिरो कर
लिखना चाहता हूँ फिर से
रेत को मिटा कर
नहीं रुकूंगा तट पर समंदर को भुला कर
फूट जाऊंगा फिर से
ब्रह्माण्ड में समा कर।
