भगत सिंह
भगत सिंह
मरने का वो दौर अलग था,
आज चलो हम जीते हैं।
आज़ादी का अमृत पाया,
बूँद बूँद हम पीते है।
कंठ पे विष सम सूली डाली,
मुक्ति के जो भक्त सदैव,
साथ में उनके राजगुरु थे,
और थे सहपाठी सुखदेव।
आयु की तारीख पे चूमा,
कफ़न रंगा बसंती का,
हँसके थामा हाथ मौत का,
मुख पे भाव था शांति का।
क्यों मानूँ ईश्वर के सच में,
मृत्यु का जब नहीं है डर?
अक्स में अपने ढाला रब को,
मज़हब नामी चाकों पर।
न ही मुझको दोज़ख का डर,
न जन्नत की मुझे है प्यास।
पूरी आज़ादी घर आये,
बस इतनी है मेरी आस।
विद्रोही कहलाऊँ मैं या,
कहलो तुम मुझको बलवंत।
कटे बेड़ियाँ दासों वाली,
दूर राज का बस हो अंत।
मुक्त विचारों वाले युवा को,
शिष्य बना जो पंडित का,
जोड़ के कर स्वराज्य मनाएं,
पान करें उस अमृत का।