बढ़ते कदम
बढ़ते कदम
पूरब के परबत झरने से पश्चिम के रण थार तक
उतर के श्वेत हिमालय दक्षिण के नील सागर तक
लाखों मीलों तक ख्वाहिशों की चादर है बिछी हुई
हर छोटे बड़े कंकर से सपनों की पगडंडी बनी हुई
पगडंडी पर चलती फिराक सी वो गाती मतवारी
इकतारा लिए कांधे झोला प्रभु गुन गाती वो नारी
हर ऋतु का आनंद लेती श्वेत नर्मदा की जलधारा
आंखों से उतरा मन में समाया वो अद्भुत नज़ारा
दायित्व पूरा निभाया है कोंपल से फूल खिलाया है
पूर्ण वात्सल्य श्रद्धा से सुगंधित उपवन सजाया है
प्रीत से मिले जब प्रीत तो परम आनंद बन जाता है
मन निश्चल तृप्त रहे तो भवसागर भी तर जाता है
ना जोग लिया ना मोह त्यागा है ना ही घर संसार
मन में उमड़े भावों के भंवर का बस खोला है द्वार
भाव बहे तो नव रचना निकाली, जो अनजानी थी
उसकी हर मुस्कान उसके त्याग आंसू से जड़ी थी
अपना महत्व खोकर उसने सबको नई पहचान दी
सपनों को दांव पर रखकर अपना उपवन सजाया
क्या नारी त्याग से ही महान बनती है ये सोच कैसी
त्याग कोई पुण्य नहीं जिसे सराहा जाए ये सोच कैसी
अपने सपनों की बलि देकर वीर महान नहीं बनना है
आज की नारी को हर कांधे के साथ आगे बढ़ना है
तभी वो बढ़ रही है अब हर दिशा हर छोर की ओर
कंकर या हरी घास हर फर्श पर बढ़ते कदमों की ओर।