विहंगवलोकन
विहंगवलोकन
दूर उस पर्वत की चोटी पे देखा एक इल्ली को,
जो फफूंद से निकलने की कोशिश कर रही है |
जैसे की,
उड़ने को बेताब पतंग एक,
पवन की उस एक लहर को ढूंढ रही है|
इस महानगरी के मायाजाल में फँसी है ज़िन्दगी,
दो पल सुकून की सांस लेने की कोशिश कर रही है|
जैसे की,
घने जंगल के डेरे में,
सुकून की वह सेहर ढूंढ रही है|
ढूंढते ढूंढते निकल गये कोसो दूर,
क्या ढूंढ रहे थे, यादें मेरी, वही ढूंढ रही है|
जैसे की,
अँधेरों की गहराइयों में फँसी ये जान,
सुबह की किरनों को ढूंढ रही है|
