बचपन
बचपन
नासमझ बचपन अच्छा था
खेलने-कुदने के लिऐ कुछ,
भी चलता था।
ना कॉम्प्युटर था ना मोबाईल था।
बस दोस्तो का झुंड इर्द-गीर्द,
रहतां था।
ना भूक थी ना प्यास थी।
दिनभर बस खेलता रहू,
इतनीहि आस थी।
स्कुल मे जाना तो महज,
एक बहाना था। आखिरी,
बेच पर सिर्फ राज अपना था।
खेलने के इरादे इतने बुलंद थे।
हर गली,चौराहे, नुक्कड मैदान,
नजर आते थे।
सपने भी सूनहरे होते थे।
आस्मा मे उडते रंगबिरंगी,
पतंगों जैसे लगते थे।
दोस्तो की भीड़ में,
हसना, रुठना, मनाना,
सब कुछ होता था।
दोस्ती उस वक्त क्या,
होती थी किसको पता था।
बस निभाने निकल पड़ता था
नासमझ बचपन अच्छा था।