बावरी
बावरी
जबसे उसके गुरु ने कहा कि श्री राम गुजरेंगे यहां से
तब से वह राह बुहारने लगी
फूल तोड़कर सहेजने लगी
बेर तोड़ तोड़कर रखने लगी
और जब प्रभु पहुंचे कुटिया में
तो प्रेमाश्रुओं से नहलाने लगी
प्रेम के वशीभूत होकर वह
बेर चख चख कर खिलाने लगी ।
बचपन में बारात निकलते देख
मां से पूछा बैठी कि घोड़ी पे कौन
मां ने बताया कि वह दूल्हा है
बाल सुलभ मन में प्रश्न उठा
कि मेरा दूल्हा कौन है ?
मां क्या कहती ? बोली "कृष्ण"
बस, तभी से बावरी की तरह
पूजने लगी अपने श्रीकृष्ण को
अपने विवाह के उपरांत भी।
प्रेम जब बढ़कर भक्ति में बदल जाए
तब कोई शबरी, मीरा, राधा
बावरी हो जाती है।
उसे अपने आराध्य के सिवा
कोई नजर नहीं आता है।
प्रेम की पराकाष्ठा है बावरापन
हर कोई लड़की बावरी नहीं होती
प्रेमिका होना अलग बात है
और बावरी होना अलग।
जब कोई अपनी सुध बुध बिसार के
अपने आराध्य में लीन हो जाए
उसे अपनी नजरों में बसा ले
सांसें उसी के नाम से चलें
तो फिर वह बावरी कहलाती है।
हर कोई राधा, मीरा नहीं बनती
कोई बावरी ही बन पाती है ।