बाहर खाने का मन है
बाहर खाने का मन है
खुशामद सी करते हुए वो बोली सुनो जी, कहते हुए जी डरता है
सारा दिन तो किचन में कटता है
घर का खाना अब बोर लगता है
रोज दाल चावल खाकर थक गए
बाहर खाना खाने का मन करता है
मैंने कहा, बिल्कुल सही कह रही हो
इतने दिनों से अंदर ही रह रही हो
चेहरा कैसे उतरा हुआ है तुम्हारा
सूख कर कांटा जैसी लग रही हो
आओ , थोड़ा हंसी मजाक कर लें
खुशियों से अपना भी दामन भर लें
चार दिन की है जिंदगी सुन तो जरा
संग संग थोड़ा जी लें , थोड़ा मर लें
बहुत दिनों बाद कोई इच्छा बताई है
बाहर खाने की बात मेरे मन भाई है
तुम खाने का बंदोबस्त कर लो जल्दी
मैंने बाहर दोनों के लिए चटाई बिछाई है
चटाई पर बैठकर बाहर खाना खाएंगे
दिन जवानी के फिर से वापस आ जाएंगे
तुम्हारा बाहर खाने का शौक पूरा हो जाएगा
होटलों में जेब कटने से हम भी बच जाएंगे
बस फिर क्या था, पारा गर्म होना ही था
धीरज की दुकान को तो बंद होना ही था
जैसा हमने बंदोबस्त किया था पिटने का
उसके कारण तो हमें बैठकर रोना ही था

