और एक विद्रोही मन
और एक विद्रोही मन
कुछ भी महसूसा जा सकता है
यदि शब्द आवाज़ हो जाएं
सुबह की बुहारी से
शुरू हुई प्रक्रिया रात
गए लोरियों पर जाकर ख़त्म होती है
जैसे बच्चे की किलकरियाँ
बुढ़ापे तक आ मौन में बदल जाती है
बदलता क्या नहीं ?
दुनिया ,साँसे और आवाज़
हर क्षण बदलकर
कहीं खो जाती है
किसी व्योम में
स्थायी सिर्फ़ स्मृतियाँ हैं
संलाप है
और एक विद्रोही मन!