अश्रु धारा
अश्रु धारा
आंदोलित हो उठा हृदय,
चिंताओं ने मन घेरा था,
सूर्य देव भी अस्त हो गए,
हर ओर तिमिर का फेरा था।
सुन धरा की करुण पुकार,
अश्रु धारा बहती थी।
भारत भूमि की माटी में जब,
रक्त की नदियां बहती थी।
बांध बेड़ियां गुलामी की,
दास बनाया भारत को।
कपटी, धूर्त, मुगलों ने,
जब घात लगाया भारत को।
वीरों के जब सीस कटकर,
भूमि पर गिर जाते थे।
आसमान भी नीर बहाता,
फिर भी अंगारे न बुझ पाते थे।
कहीं जात - पात, कहीं ऊच - नीच,
एक चक्रव्यूह सा बनाया था।
अपने ही अपनों को मरे,
समय, काल रूप धर आया था।
अनगिनत मुंड का ढेर लगा,
अनगिनत चिंताएं जलती थी।
वीरों के हृदयों में तब,
ज्वाला प्रतिशोध की जलती थी।
भव्यता भारत की जब,
शत्रु से न देखी जाती थी।
कई देवस्थान विध्वंस किए,
कई नगरिया जलाई जाती थी।
आंखें भी नीर बहाती थी,
हृदय भी नीर बहाता था।
एक एक तब नीर धरा पर,
अंगारों का रुप ही पाता था।
प्रतिकार की वह ज्वाला,
अब तक माटी में जीवित है।
वे अश्रु थे अनमोल बड़े,
जिसने माटी को सींचा है।
कर्तव्य यही हम सबका अब,
वहीं भारत फिर से बनाना है।
भारत के वीरों का कर्ज हमें,
इसी भूमि पर चुकाना है।
जय हिन्द।
जय मां भारती।
