कविता -- उठो धरा के वीर सपूतों।
कविता -- उठो धरा के वीर सपूतों।
उठो धरा के वीर सपूतों,
आज नया आगाज़ करो।
धरती मां की सेवा में,
तन मन धन बलिदान करो।
हाथ मिलाकर, साथ चलो सब,
विजय की जयघोष करो।
अंधकार जो फैल गया है,
ज्ञान दीप से दूर करो।
कण कण है चित्कार कर रहा,
कब उल्लास फिर से होगा।
प्रेम भाव जो शुण्य हो रहा,
कब उपवन मधुकर होगा।
पाटल, तटिनी, शुक, पत्ते,
वेग रुदन सा करते हैं।
ये मार काट करने वाले,
कैसे मानव के बच्चे हैं।
अयस, स्वर्ण, कोकिल से,
भरी हुई खदानें है।
फिर भी हृदय के भीतर,
तृष्णा पाने की बाकी है।
व्याख्यानों से अब नहीं चलेगा,
आगे बढ़ने की पारी है।
उठो धरा के वीर सपूतों,
अब कुछ करने की बारी है।
सो गई जो अंतर आत्मा,
फिर से उसे जगाना है।
मानव जीवन इस धरती पर,
विधाता का खज़ाना है।
इस जात पात, इस ऊंच नीच का,
भेद हमें मिटाना होगा।
उठो धरा वीर सपूतों,
जीवन को सफल बनाना होगा।
मन मन में बैठे राक्षस को
निर्गत अब करना होगा ।
अच्छा जीवन पाना है तो,
कर्म अच्छा करना होगा।
कर्म हमारी पहचान बनेगा,
कर्म हमारा जीवन होगा।
बिना कर्म व्यर्थ भुजाएं,
धिक्कार भरा जीवन होगा।
कण कण में और जन जन में
संदेश यही पहुंचा है।
उठो धरा के वीर सपूतों,
भारत को हमें बचाना है।
