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Prachi Chachondhiya

Abstract

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Prachi Chachondhiya

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अंतर्मुखी

अंतर्मुखी

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क्या अंधेरे से मोहब्बत हो सकती है,

बेसुध गुमसुम अकेले यूं ही बैठने की चाहत हो सकती है??

ये कुछ सवाल हैं मेरे अगर इजाज़त हो,

तो ही इनको पूछने की हिमाकत मेरी हो सकती है,

यूं तो कोई शिकवे नहीं है मुझे जमाने से,

थोड़ा कुछ लेने के बदले बहुत कुछ दिया भी है इसने,

पर क्या इन सबसे दूर कुछ पल

अकेले में बिताने की मौहलत मिल सकती है!!


वैसे कोई डिप्रेशन या कोई बीमारी भी नहीं है मुझे

न जाने क्यों ये उजाला अब कुछ रास नहीं आता,

चाहती तो बहुत हूं मैं इसके साथ चलना,

पर ये किसी शताब्दी सा अपनी ही धुन में भागा चला जाता है,

फिर मेरे सामने मेरी हमसफर इस रात को छोड़

आगे बढ़ा चला जाता है,

खैर शिकायत नह

ीं मुझे कुछ ऐसे

आखिर इश्क है यह मेरा,

कम से कम उस सुबह के उजाले की तरह

झूठ का मुखौटा पहनने पर मुझे मजबूर तो नहीं करता !!


शोर शराबा भीड़-भाड़ मयखाने में जाने का शौक नहीं मुझे,

बस अपने कमरे की उस खिड़की के पास बैठ

आसमा को एकटक निहारने का जी चाहता है,

झूठमुठ के दिखावे और बेवजह की पाबंदियों से दूर,

पास रखी कुछ किताबें उन किताबों के

शब्दों की दुनिया में सैर करने का यह जी चाहता है,

अगर इजाजत हो तो मेरी जिंदगी से कुछ

मेरा वक्त चुरा कर इस रात के आगोश में

खो जाने का जी चाहता है !!


क्या अंधेरे से मोहब्बत हो सकती है

बेसुध गुमसुम अकेले यूं ही

बैठने की चाहत हो सकती है?


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