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अन्नदाता

अन्नदाता

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रवि मद्यम पड़ जाता है

शीत भयभीत हो जाता है

आँखों में लिये परिश्रम के सपने,

जब वह खेत को जाता है।।

वर्षा के क्या वश उसके आगे चलता

वह तो ना तूफान से डरता

अन्नदाता के स्वरूप लिये,

मेहनत करके अन्न उगाता।।

खून-पसीने से वह अपने

सींच-सींच कर धरा की प्यास बुझाता

धरती की प्यास बुझाने की खातिर,

नभ से घन को तोड़कर लाता।।

वह तो भूमि का भाग्य विधाता है।

बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना देता है।

सम्पूर्ण विश्व की उदर शान्ति के लिये,

‘माही’ वहीं सच्चा अन्नदाता है।।


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