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Sanjay Saini

Abstract Classics

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Sanjay Saini

Abstract Classics

अहम् ब्रह्मास्मि

अहम् ब्रह्मास्मि

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प्रतिबिम्ब में

स्वयं को देखते हुए

मैं,

अकस्मात् ही

कहीं खो सा गया.


मैं कौन हूँ ?

ये प्रश्न

मेरे मस्तिष्क में

कहीं

कौंध सा गया।


इतने विशाल विश्व में

क्या अस्तित्व है

मेरा

क्या है यह विश्व ?

स्वयं में संपूर्ण

या फिर

अनेक लोकों में

मात्र एक

बिंदु समान।


ऐसे भी पल होते हैं

जब हम समझते हैं

स्वयं को

अहम्

मगर अगले ही क्षण

पाते हैं

स्वयं को

एक शून्य समान.


कभी स्वयं में

पाते हैं एक

स्फूर्तिमय चक्रवात

और कभी

शीतल पवन बयार


कभी प्रतीत होता है

एक प्रबल प्रवाह

और कभी

एक शांत सी लहर

जिसमें ऊर्जा तो है

लेकिन

सागर तट पर आते आते

उसी जल में

विलीन हो जाती है


कभी

हम होते हैं

एक दीप्तिमान

सूर्य किरण

और दूसरे ही पल

एक घना अंधकार


किसी क्षण

हम होते हैं

एक चट्टान जितने मज़बूत

और

अगले ही पल

एक धूल के समान


कभी

हम उड़ते हैं

अथाह आकाश में

और कभी

चाहते हैं

एक मुट्ठी आसमान.


पर,

अब मैं सोचता हूँ

कि

यही तो हैं

वह पंच तत्त्व

जिनसे है

हमारा अस्तित्व


ये ही बनाते हैं

हमें

और

इस ब्रम्हाण्ड को

और हम स्वयं

एक अंश

जो बनाता है हमें

अहम् ब्रह्मास्मि।


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