अदीब
अदीब
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मेरे दौर के अदीब कहाँ हैं
कोई तो अदीब हो
जो लिखे इस दौर के दर्द को,
इस वर्तमान को उतार सके जो कलम से,
जिसमें केवल अतीत रोना न हो,
जहां अदीब और उसके पात्र अतीत की सड़ी
लाश को कन्धों पर निरन्तर न लादे हों,
जिसकी कहानियां कोरी कल्पना नहीं वरन
यथार्थ की वेदना से उपजी हों,
उसके पात्रों द्वारा व्यक्त दर्द या संवेदना झूठा न हो
उसका अपना हो
महज़ फुसलावा नहीं।
हरेक युग की तरह इस युग को भी
अपने अदीब का इंतज़ार है जो हर मज़हब,
लिंग, जाति, राष्ट्र की सीमाओं से स्वतंत्र हो
मेरे शहर का अदीब उदास है इन दिनों
उसका शहर जो उसका घर भी है,
राष्ट्र भी और दुनिया भी
वह अब वो शहर नहीं
जो उसने बनाया था या जिसने उसे बनाया था
उसकी कहानियों के पात्र बंट गए हैं,
तमाम उन विभाजनों में
जिनमें व्यक्ति, शहर, राष्ट्र बंटते हैं
जहाँ कत्लेआम सिर्फ जिस्मों का नहीं
व्यक्तित्व भी नीलाम नज़र आते हैं।