आतंकवाद
आतंकवाद


धधक उठी मेरी आत्मा,
जब देखी मैंने वो ज्वाला।
मनुष्य जाति को नष्ट कर,
उठ रहा था धुआँ काला।
न सुख था, न चैन था,
और न ही था भाईचारा।
हर तरफ़ बस शस्त्र थे,
और था आतंकवाद का
बोलबाला।
स्वयं को सही साबित करने का,
ही तो था सदैव मसला सारा।
और मौकाप्रस्त होकर आतंकवाद ने,
धर्मों पर सही निशाना साधा।
अब न ही कोई विकल्प था,
बस मौत का था चारों तरफ़ साया।
सोचा उस क्षण बस मैंने,
काश सही निर्णय लेकर,
हमने किया होता अमन का इशारा।
तो शायद इस पल हमारा जीवन,
होता सबसे अधिक प्यारा।
एक धरती के पुत्र होकर भी,
क्यों सीमाओं ने है हमें बाँटा।
क्यों न हम सब हाथ बढ़ाएं,
दोस्त बनकर शांति बनाएँ।
खत्म करके आतंकवाद को,
कायम करदें नई एक शौर्य गाथा।