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SUDHA DEVI M

Abstract

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SUDHA DEVI M

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आत्मरक्षा

आत्मरक्षा

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मैं बस चल रहा हूँ -

कुटिलता के चंगुल में फँसे मनुष्यों की भीड़ से

निजी स्वार्थ की साँस लेनेवालों के बीच से

अर्थहीन वैरभाव पालते क्षुद्र जीवों की हीनता को परखते हुए


आँसू की कीमत पूछनेवालों के समाज को समझते हुए

दूसरों के दुख में अपना सुख ढूँढ़नेवालों के झुंड से दूर

अराजकता के मार्ग चलते दुराचारियों से बहुत दूर

अपने में उलझकर


मैं अपनी राह चल रहा हूँ ।

अपनी नपुंसकता में अडा हूँ,

आँखें हैं मेरी-

आँखों देखे अन्याय का अंत नहीं कर सकता


मुँह है मेरा ,खाने के लिए खोलता हूँ

गलत को गलत कहने का सामर्थ्य नहीं रखता,

मेरे दो कान भी हैं ,गालियां सुनकर

मैं बहरे का नाटक करता हूँ।


जीवन में मेरे सामने अनेक रास्ते हैं

लेकिन मैं आत्मरक्षा का मुखौटा पहनकर

जीने के भ्रम में बस मिट्टी का लौंदा बन पड़ा हूँ,

इस धरती में न मेरे जीने का

कोई महत्व न मेरे मरने का।


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